राजस्थान के डरा गाव की एक 18 वर्षिय लड़की ने वो कर दिखाया जो बड़े-बड़े लोगों के बस की बात नहीं. यह 18 वर्षिय लड़की घर-घर जाकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक कर रही है. उसकी यह पहल वाकई तारीफ के काबिल है. ग्रामिण क्षेत्रों में घरेलू सहायिका बनने के लिए बच्चें अक्सर स्कूल छोड़ देते है और कुछ पैसों के लिए काम करना शुरू कर देते हैं. इस पैसे से उनके परिवारों के लिए एक दिन में दो भोजन का आश्वासन तो मिलता है, लेकिन उन्हें भविष्य की कीमत चुकानी होती है.
घर-घर जाकर समझाया शिक्षा का महत्व
ललिता, खुद बच्ची है, लेकिन उसने करीब 57 बच्चों को बाल मजदूरी से छुड़ाया है और गांव के स्कूल में उनका फिर से Admission कराया है.एक इंटरव्यू में ललिता ने बताया कि वे बाल पंचायत के अन्य सदस्यों के साथ घर-घर जाकर बच्चों के माता पिता से बात-चीत करती थी और उन्हें समझाती थी कि शिक्षा बहुत जरूरी है. लेकिन अधिकतर माता-पिता के लिए उनके बच्चे पैसे कमाने का माध्यम बन गए थे, ऐसे में उन लोगों को समझाना बहुत कठिन था.
18 साल की उम्र में बाल पंचायत के सरपंच के रूप में कर रही कार्य
18 साल की ललिता स्कूल छोड़ने वाले बच्चों,बाल विवाह , बाल श्रम , छुआछूत और बच्चों एवं युवा वयस्कों के जीवन को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दों के खिलाफ आवाज उठा रहीं है. ललिता 2015 से बाल-केंद्रित ग्रामीण विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मॉडल – बाल मित्र ग्राम की Active सदस्य रही हैं. अब 18 साल की उम्र में वह सरपंच के रूप में बाल पंचायत (बाल परिषद) की अगुवाई कर रहीं है.
लगातार करती रही कोशिश
उसके गाँव में बहुत से लोग शुरुआत में ललिता और उसके दोस्तों को गंभीरता से नहीं लेते थे, क्योंकि वे छोटी उम्र में बड़े मुद्दों पर बात कर रहीं थी. गौरतलब है कि इतने उताव-चढ़ाव और लोगों की बातें झेलने के बाद भी ललिता ने कभी हार नहीं मानी और उसकी कोशिश लगातार जारी रहीं. आखिरकार गांव वालों का Support मिला. आज ललिता लड़कियों की शिक्षा , पर्यावरण संवेदनशीलता,स्वास्थ्य और स्वच्छता की वकालत करके समाज को जागरूक कर रहीं है. ललिता दुहरिया के पिता एक दिहाड़ी मजदूर हैं और उनकी मां एक गृहिणी हैं. उसने यह भी बताया कि अब उसके माता-पिता उसके काम में साथ दें रहें हैं, लेकिन पहले जब गांव वाले उसके माता- -पिता से लड़ने आते थे, तो वे उसे इन सभी मामलों से परे रहने को कहते थे.
खुद भी हो चुकी है भेदभाव और छुआछूत का शिकार
ललिता खुद वर्ग भेदभाव और छुआछूत जैसे मुद्दों को झेल चुकी है. वह कहती है कि जब वह कक्षा 6 में थी, तो उसे अपने गाँव में भोजन के वितरण से वंचित कर दिया गया था क्योंकि उसे निम्न वर्ग से माना जाता था, लेकिन वह इस मामले को बाल पंचायत की एक बैठक में ले गई और अपने अधिकार के लिए ख़डी रहीं. तब से, वह अपने समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में प्रयास कर रही है. ललिता ने लोगों को सभी धर्मों और जातियों का सम्मान करने की शिक्षा दी है.
बाल विवाह को पूर्ण रूप से किया खत्म
मकर संक्रांति के मोके पर उन्होंने एक “सांप्रदायिक दोपहर का भोजन” शुरू किया जहां वह और सभी जातियों और समुदायों के अन्य बाल पंचायत सदस्य भाग लेते हैं और एक साथ दोपहर का खाना खाते है. इस पहल के माध्यम से, वे हाथ मिलाने और साथ काम करने के लिए पूरे समुदाय में संदेश फैलाना चाहती थी. बाल पंचायत के साथ मिलकर उनके जागरूकता अभियान ने उनके गाँव और आस-पास के गाँवों से बाल विवाह को पूरी तरह से खत्म कर दिया है. ललिता को अशोक चेंजमेकर अवार्ड (Ashoka changemaker award) और रीबॉक फिट टू फाइट (Reebok fit to fight) अवार्ड से भी नवाजा गया है.
