शाही राज घराना! जब भी यह शब्द कहा-सुना जाता है, तो आंखों के सामने दिखाई देता है शाही महल, हाथी-घोड़े, दरबार, महंगे आभूषण, कभी ना खत्म होने वाली सम्पत्ति और एश-ओ-आराम की हर चीज़. इसके साथ ही जहन में एक बार ही सही, पर कोई भूतिया कहानी या फिर श्राप के बारे में भी विचार आ ही जाता है.

दरअसल, हमारी पीढ़ी ने राज परिवारों को टीवी सीरियल या फिल्मों में ही देखा है, और वहां दिखाई गई कहानियों में किसी ना किसी श्राप का ज़िक्र ज़रूर होता है. ये कहानियां कुछ राजपरिवारों की हकीकत भी हैं: जैसे मैसूर का शाही परिवार! माना जाता है कि यह परिवार बीते 400 साल से एक अभिशाप की गिरफ़्त में है.

एक श्राप जिसने इस शाही परिवार की हर पीढ़ी को अपने साए में ले लिया. एक श्राप जो एक औरत के दिल से निकली हाय थी. मानने वाले मानते हैं और ना मानने वालों के अपने तर्क हैं. पर हमारे लिए यह ज़रूरी है कि आपको इस रोचक जानकारी से रूबरू करवाया जाए.

मैसूर के राजवंश पर लगा 400 साल पुराना श्राप
में हैं. इस समय यदुवीर कृष्णदत्त वडियार मैसूर राज परिवार के राजा हैं. वे हमारी काल्पनिक कहानियों की तरह महल में नहीं रहते पर मैसूर की जनता के लिए वे उनके राजा ही हैं.

यदुवीर ने श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वडियार की जगह ली. श्रीकांतदत्त के कोई संतान नहीं थी. दिसंबर 2013 में उनकी मौत के बाद से ही उत्तराधिकारी को लेकर बहस चल रही थी, जो साल 2017 में 23 साल के यदुवीर की ताजपोशी के साथ ख़त्म हुई. श्रीकांतदत्त की पत्नी प्रमोदा देवी वडियार ने इससे कुछ ही समय पहले यदुवीर को गोद लिया था. यह पहली बार नहीं है, जब मैसूर की राजगद्दी के लिए राजकुमार को गोद लिया गया हो.

यह क्रम बीते 400 सालों से जारी है. कहते हैं कि मैसूर के राजपरिवार को एक औरत का श्राप लगा हुआ है. जिसके अनुसार उनके कुल में किसी भी राजा को पुत्ररत्न की प्राप्ति नहीं होती. यानि मैसूर के राजपरिवार को हर बार अपने लिए राजा या​ यूं कहें कि उत्तराधिकारी गोद लेना पड़ता है.
गहनों के लालच ने दिया अंधे

कहते हैं राजपरिवारों के लिए पुत्र का महत्व ज्यादा है, ताकि उनका राजवंश चलता रहे. प्रजा को उसका राजा मिले और राजा को उसका उत्तराधिकारी. लेकिन मैसूर के इतिहास में 16शताब्दी के दौरान एक ग्रहण लग गया. 1612 में मैसूर के राजा वडियार ने पड़ोसी राज्य श्रीरंगपट्टनम पर हमला किया था. यह हमला वहां की राजशाही को खत्मकर खुद में मिला लेने के लिए था. इस जंग में वहां के शासक तिरुमालाराजा हार गए.

उन्होंने राजपाठ त्याग दिया और अपनी पत्नी अलामेलम्मा के साथ तलक्कड़ में साधारण जीवन जीने लगे. अलामेलम्मा अपने साथ केवल अपने राजघराने के जेवर लेकर आईं थीं. ये जेवर उनके लिए बहुत अहम थे, चूंकि इन जेवरों से श्रीरंगपट्टनम राजपरिवार की कुलदेवी श्रीरंगनायकी का श्रृंगार होता था. एक दिन के श्रृंगार के बाद गहने उतार कर वापिस रानी को दे दिए जाते थे. जब अलामेलम्मा का शाही राजपाठ ख़त्म हो गया तो मंदिर राजा वडियार के अधीन आ गया. मंदिर के पुजारियों को अलामेलम्मा की प्रथा के बारे में पहले से मालूम था. उन्होंने अपने नए राजा को इसकी जानकारी दी और कहा कि अब आभूषण मंदिर प्रबंधन के पास ही रहने चाहिए. राजा वाडियार ने भी सहमति दी और सैनिकों को भेजकर अलामेलम्मा से गहनों की मांग की.

अलामेलम्मा के लिए वे गहने उसके परिवार की प्रतिष्ठा और गौरव का आखिरी सबूत थे इसलिए उसने गहने देने से इंकार कर दिया. राजा वाडियार ने अपने सैनिकों के साथ अलामेलम्मा पर हमला कर दिया. उसकी तलाश की गई. अलामेलम्मा अपनी जान बचाने के लिए जंगलों में छिपी रहीं जब सैनिकों को उनके वहां होने की भनक लगी तो वे जंगल में पहुंचे.

अलामेलम्मा के पास कोई और रास्ता नहीं था इसलिए उसने गहने हाथ में लेकर कावेरी नदी में छलांग लगा दी. लेकिन छलांग लगाने से पहले उसने वाडियार राज परिवार को श्राप दिया कि इस वंश में कभी उत्ताराधिकारी पैदा नहीं होगा. यानि किसी राजा को पुत्र प्राप्ति नहीं होगी. 400 साल बीत गए और अलामेलम्मा का श्राप अपना रंग दिखाता रहा.
हाल ही में पहली बार राजपरिवार में मैसूर के 27वें राजा यदुवीर वडियार की पत्नी तृषिका सिंह ने एक बेटे को जन्म दिया है. उम्मीद की जा रही है कि शायद अब अभिशाप ख़त्म हो गया हो.

रेगिस्तान में बदल गई कावेरी
बताया जाता है कि अलामेलम्मा के मरने के कुछ दिन बाद ही राजा वडियार के इकलौते बेटे की मौत हो गई थी और इसके बाद से राजपरिवार में यह सिलसिला जारी रहा. कुछ पुरोहितों ने महल में अलामेलम्मा की मूर्ति स्थापित करने के लिए कहा, राजा ने वह भी किया लेकिन इससे कोई फ़र्क नहीं दिखा. यानी इस राजवंश में राजा दत्तक पुत्र ही बनता आ रहा था, लेकिन श्राप में यकीन न रखने वालों के पास तर्क है.

उनका मानना है कि यह आनुवांशिक कारणों से भी हो सकता है. चूंकि हर बार उत्तराधिकारी परिवार का ही कोई सदस्य बनता है इसलिए संभावना है कि आनुंवाशिक कारणों से संतानप्राप्ति नहीं हो रही. हालांकि 400 साल तक आनुंवाशिक संतानहीनता की बात कुछ अजीब लगती है. वैसे श्राप का ज़िक्र हो रहा है ,तो इस कहानी में एक और कहानी जुड़ती है. मैसूर के पास ही एक गांव है तलकाडु गांव. कहा जाता है यह 16वीं शताब्दी का वही गांव है, जहां अलामेलम्मा ने कावेरी में छलांग लगाई थी. जब अलामेलम्मा ने कावेरी में कूद कर जान दी तो कुलदेवी के श्राप से यह नदी सूखकर रेगिस्तान में बदल गई. उस दौर में गांव में करीब 30 मंदिर हुआ करते थे, जो सभी रेगिस्तान के नीचे दब गए.

अब तक इनमें से 5 शिव मंदिरों को खुदाई कर निकाला जा चुका है. जिन्हें वैद्यनाथइश्वर, पातालेश्वर, मरुलेश्वारा, अर्केश्वारा और मल्लिकार्जुन मंदिर के नाम से जाना जाता है. मान्यता है कि ये मंदिर हर साल रेगिस्तान में दबने लगते हैं और उन्हें खोद कर बाहर निकालते रहना पड़ता है.

ये सारी बातें श्राप हैं, कहानियां हैं, मिथक हैं या फिर अवधारणाएं.. जो भी हैं, लेकिन इन पर मैसूर के शाही परिवार को यकीन है और उम्मीद है कि शायद अब उन्हें श्राप से मुक्ति मिल गई हो!

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